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डॉ0 संगीता शर्मा अधिकारी
- कथा कहानी
रीएंबर्समेंट
दफ्तर में ये ख़बर आग की तरह फैलने लगी कि कल जो विमल तेज बुखार में तप रहा था आज उसका कोविड-19 टेस्ट पॉजिटिव आया है। अब सबके बीच सुगबुगाहटें बढ़ने लगीं।
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जय चक्रवर्ती
- कविता / ग़ज़ल
मैं दुःख का जश्न मनाऊँगा
तुम दरबारों के गीत लिखो
मैं जन की पीड़ा गाऊँगा.
लड़ते-लड़ते तूफानों से
मेरे तो युग के युग बीते
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संध्या सिंह
- कविता / ग़ज़ल
एक ग़ज़ल
जो हमेशा बज़्म का हिस्सा रहे हैं
ये समझ लो उम्र भर तन्हा रहे हैं
तुम समझना चाहते हो रुख़ हवा का
हम हवा को रास्ता समझा रहे हैं
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राजकुमार जैन राजन
- दृष्टिकोण
सफलता का मार्ग स्वयं ही प्रशस्त होता है
आज भौतिकवाद की चकाचौंध हर जगह दिखाई दे रही है। हर व्यक्ति जीवन की भागमभाग में शामिल है। विज्ञान के नित नए होने वाले अविष्कार ने सबको अस्त-व्यस्त कर दिया है।
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राम कुमार कृषक
- कविता / ग़ज़ल
राम कुमार कृषक जी की कविता
सार्थक संध्या नहीं थी आज की ,
बेपरों चर्चा रही परवाज़ की ।
थे वही क्यों थे मगर बातें हुईं ,
कुछ अदीबों के अलग अंदाज़ की ।
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विजया गुप्ता
- कविता / ग़ज़ल
इनको ज़रा उकेरूं तो गीत लिखूं
कुछ अधूरा सृजन ,बिखरे सपने
कुछ धुंधली यादेँ, बिछड़े अपने
कुछ अश्रु बूंद ठहरी पलकों पर
मन में उभरते कुछ चित्र अधबने
इनको ज़रा उकेरूं तो गीत लिखूं।
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विमल चन्द्राकर
- कविता / ग़ज़ल
चालीसवें बसंत पर हूँ
चालीसवें बसंत पर हूँ
कल रात की ढ़लान के बाद
अभी भी मैं शायद खिला हूँ...
पर जर्जरता क्षीणता तो नियति है।
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किशन स्वरूप
- कविता / ग़ज़ल
नारी
तुम माँ हो, दुहिता हो,भगिनी, मित्र तुम्हीं ,
जीवन को जीवन दे मात्र चरित्र तुम्हीं ।
तुम सागर हो प्यार -प्रीति का ममता का,
सहिष्णुता सद्भाव ,सौम्यता ,समता का ।
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गोपाल सिंह राघव
- व्यंग्य
गाय का लड़का
मुजफ्फरनगर के नवीन मंडी स्थल पर प्रातः भ्रमण और संध्या भ्रमण के लिए बड़ी संख्या में लोग पहुंचते हैं। अपने मित्रों के साथ एक शाम मैं भी वहां घूमने चला गया। वहां मेरी दृष्टि बहुत सारे ऐसे बछड़ों पर पड़ी जिनका कोई मालिक नहीं था, सब अपनी अपनी मर्जी के मालिक थे।
- रामस्नेही लाल शर्मा यायावर
- कविता / ग़ज़ल
तिरने के दिन
आये फिर लहरों में तिरने के दिन
घोल रही मधुगन्धा मदमाते घोल
इच्छाएँ घूम रहीं बाँध-बाँध टोल
पल्लव से अंतर के चिरने के दिन
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प्रो सरोज मिश्र
- कविता / ग़ज़ल
फिर फागुन आने वाला है
जिस रोज तुम्हारी गागर से सतरंगी रंग छलक जाए .
उस रोज समझना धरती पर फिर फागुन आने वाला है
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ऋषिराज राही
- कविता / ग़ज़ल
मगर हम बुलाते रहे
अनसुनी सी रही रात की रागिनी
अनमने से सपन कसमसाते रहे।
हम सजाते रहे छांव के गुलमोहर
वो खड़े धूप में तन जलाते रहे।
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संजय जोशी 'सजग'
- व्यंग्य
मूड है कि मानता नहीं
जिस प्रकार चायना के मॉल का कोई भरोसा नहीं रहता है फिर भी इसका उपयोग करना हमारी जिन्दादिली है, उसी तरह आजकल मूड़ का कोई भरोसा नही कब खराब हो जाये यह एक गंभीर समस्या बन गई है
- बृजराज सिंह, मुजफ्फरनगर
- कथा कहानी
अस्तित्व
टी.वी. पर प्रवासी मजदूरों के पलायन और मारा-मारी का हाल देखकर मैं बार-बार सोचता हूं कि कितने नासमझ और बेवकूफ हैं ये लोग, क्या इन्हें कोरोनावायरस की महामारी का अभी तक पता ही नहीं चला या अपनी जान की बिल्कुल भी चिन्ता नहीं।
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डॉ. जगदीश व्योम
- कविता / ग़ज़ल
नववर्ष तुम्हारा अभिनंदन
आमों पर खूब बौर आए
भँवरों की टोली मँडराए
बगिया की अमराई में फिर
कोकिल पंचम स्वर में गाए
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रामकिशन शर्मा
- कथा कहानी
लगाव
गर्मियों का मौसम था| हमेशा की तरह गर्मियों की छुट्टियों में सपरिवार अपने गाँव गए हुए थे| जब वापिस लौटे तो पाया, ड्राइंग-रूम में इधर-उधर कुछ तिनके फैले हुए हैं| अरे! ये तिनके कहाँ से आ गए? किस ने फैलाये होंगे? सब हैरान थे और चारों तरफ अपनी निगाहें दौड़ा रहे थे| आखिर पता चल ही गया|
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गोपाल सिंह राघव
- व्यंग्य
जाने वाला बोल रहा था
मैं तो समय का एक पीस हूं
मृत शैय्या पर पड़ा सन् दो हजार बीस हूं।
जब मेरा आगमन हुआ, आप सभी ने हैप्पी न्यू ईयर कहा।
अब जरा पता करके बताओ, कौन-कौन हैप्पी रहा?
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डॉ. पुष्पलता
- कविता / ग़ज़ल
उदास पानी
रंग सारे उदास पानी के,
बस रहें आस-पास पानी के।
ओक भी है उदास औ' लब भी,
प्यास बैठी है पास पानी के।
- अनूप मिश्र तेजस्वी
- कविता / ग़ज़ल
कई !
हर क़दम पर हैं इम्तिहान कई।
है अकेला दिया, तूफ़ान कई।
एक साये को तरसते हैं हम,
यूँ तो सर पर हैं आसमान कई।
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विजया गुप्ता
- व्यंग्य
मठाधीश / एक रेखाचित्र
वे स्वयं भू हैं,
वे सर्वज्ञ हैं, ज्ञानी हैं,
वे स्वघोषित मठाधीश हैं,
वे ही मुवक्किल, मुंसिफ और न्यायाधीश हैं।